Satyaprem Ki Katha Review: कमजोर स्क्रीनप्ले, गानों की ओवरडोज, लेकिन स्ट्रॉन्ग मैसेज देती है फ‍िल्म

Satyaprem Ki Katha Review: फिल्म का ट्रेलर या गाने देखकर यह अंदाजा लगा पाना बेहद मुश्किल था कि ये फिल्म महिलाओं से जुड़े एक इश्यू पर भी बात करती है. फिल्म अपने मकसद में कितनी कामयाब रही 

फिल्मों ने दर्शकों को एंटरटेन करने के साथ-साथ कई बार सोशल मेसेज भी देने की कोशिश करती रही है. हालांकि एंटरटेनमेंट और सोशल मेसेज का बैलेंस किस तरीके से होना है, ये पूरी तरह से डायरेक्टर पर निर्भर करता है. कोई निर्देशक हंसते-गाते हुए गहरी बात कर जाता है, तो वहीं कुछ संवेदनशील टॉपिक को भी उसी गंभीरता से कहने पर यकीन रखते हैं. सत्यप्रेम की कथा फिल्म एक ऐसा उदाहरण है, जिसमें डायरेक्टर ने एंटरटेनमेंट के साथ-साथ एक बहुत जरूरी मेसेज देने की इमानदार कोशिश की है.

कहानी 

अहमदाबाद का रहने वाला सत्यप्रेम उर्फ सत्तू (कार्तिक आर्यन) एक साधारण मीडिल क्लास से आता है. वकालत की पढ़ाई में तीसरी बार फेल हो चुके सत्तू की एक ही ख्वाहिश है कि उसकी शादी जल्दी से हो जाए. इसी बीच डांडिया खेलते वक्त उसे कथा दिखती है, जिसे पहली नजर में ही सत्तू दिल दे बैठता है. जब कथा को अपनी शादी की बात कहता है, तो उस बॉयफ्रेंड का हवाला देकर वो वहां से निकल जाती है.

एक साल बाद जब दोबारा डांडिया नाइट में कथा को नदारद देखकर सत्तू कथा के घर पहुंचता है, तो देखता है कि उसने अपने हाथों की नसें काट ली है. जिसे बचते-बचाते वो अस्पताल लेकर जाता है. यहां से कहानी में आता है ट्विस्ट. क्लास डिफरेंस होने के बाद कथा के परिवार वाले चाहते हैं कि सत्तू उनकी बेटी से शादी कर ले. हालांकि इस शादी में कथा की रजामंदी नहीं है. आखिरकार दोनों की शादी करवा दी जाती है. कथा ने सुसाइड करने की कोशिश क्यों की थी? सत्य के साथ कथा की शादी की वजह क्या थी? इन सवालों के जवाब के लिए थिएटर की ओर रुख करें.

डायरेक्शन 

समीर विध्वंस ने फिल्म की डायरेक्शन का कमान संभाली है. एक हल्की-फुल्की फिल्म के साथ उनका एक स्ट्रॉन्ग मेसेज देने की मंशा बेशक काबिल ऐ तारीफ है, लेकिन डायरेक्शन में कई तरह की लापरवाही भी साफ झलकती है. फिल्म का सबसे कमजोर पक्ष है, उसका हद से ज्यादा लंबा होना. कई ऐसे लचर सीन्स व गैर जरूरी गाने थे, जिनके इस्तेमाल से समीर परहेज कर सकते थे. इस फिल्म को एडिटिंग की अदद दरकार लगती है. फर्स्ट हाफ तो बहुत ही ज्यादा खींचा हुआ लगता है. नतीजतन कई ऐसे स्पेशल सीन्स हैं, जहां कमजोर स्क्रीनप्ले की वजह से अपना प्रभाव ढंग से नहीं छोड़ पाते हैं. हालांकि फर्स्ट हाफ के दौरान ही कुछ ऐसे शॉकिंग खुलासे होते हैं, जिसकी वजह से सेकेंड हाफ के लिए आप उत्सुक हो जाते हैं. यहां सेकेंड हाफ फिल्म को डूबने से बचा लेती है. इंटरवल के बाद फिल्म जिस मुद्दे पर आती है, वो फैंस के लिए शॉकिंग फैक्टर का काम करती है. मसलन आपने उम्मीद की होगी कि एक लाइट हार्टेड रॉम-कॉम फैमिली ड्रामा की, लेकिन यहां सेकेंड हाफ में महिलाओं के उस इश्यूज पर बात करती है, जो अक्सर नजरअंदाज कर दिए जाते हैं.

एक रिलेशनशिप में होने के बावजूद महिला के ‘न’ को सीधी तरह से क्यों नहीं समझा जाता है. इन्हीं मुद्दों के साथ फिल्म अपने क्लाइमैक्स पर पहुंचता है. फिल्म में कार्तिक के किरदार का एक लड़के को जूते से मारना इस पूरी फिल्म का हाई पॉइंट है. जो एक इमोशन के रोलर-कोस्टर राइड पर लेकर जाता है. ओवरऑल अगर फिल्म एक सोशल मैसेज देती है, लेकिन उसके लिए आपको फर्स्ट हाफ झेलना पड़ेगा. हालांकि वो कहते हैं न अंत भला तो सब भला.

टेक्निकल 

इस फिल्म को प्रॉड्यूसर साजिद नाडियाडवाला ने हर तरह से मासी बनाने की कोशिश की है. फिल्म की भव्यता सिल्वर स्क्रीन पर बखूबी दिखती है. गानों के साथ हीरोइक एंट्री लेता एक्टर ग्लैमरस लगती एक्ट्रेस. गाने, डांस कॉमिडी, फिल्म में हर वो फैक्टर है, जो इसे मसाला बनाती है. सिनेमैटोग्राफी फिल्म की कमाल की रही, कैमरा एंगल और उसकी फ्रेम की खूबसूरती स्क्रीन पर दिखती है. फिल्म के गाने उसकी पेस में खलल डालते हैं. गानों को हटा दिए जाए, तो फिल्म क्रिस्प हो सकती थी. गानें ही इतनी ज्यादा संख्या में हैं कि बैकग्राउंड स्कोर पर ध्यान ही नहीं जा पाता है.

एक्टिंग 

कार्तिक आर्यन को यह बात बखूबी पता है कि उन्हें अपने मास को कैसे खुश रखना है. इसलिए वो फिल्मों में एक अच्छे सब्जेक्ट के साथ-साथ फुल टू एंटरटेमेंट का भी पूरा बैलेंस रखते हैं. फिल्म में कार्तिक गुजराती लड़की के किरदार में हैं, हालांकि पूरी तरह से तो नहीं लेकिन उन्होंने अपने किरदार के ग्राफ को ठीक-ठाक तरीके से पकड़ लिया था. स्क्रीन पर बेहद ही खूबसूरत और स्टाइलिश लगे हैं. कियारा आडवाणी ने प्रथा के किरदार के साथ पूरा न्याय किया है. सबसे अच्छी बात है कि इन दोनों किरदारों से गुजराती तो बुलवाई गई है, लेकिन एक्सेंट को बख्श दिया गया है. वर्ना वो बहुत ही बनावटी लगता. यहां गजराज राव और कार्तिक की बॉन्डिंग बहुत ही ऑर्गैनिक सी लगती है. बाप-बेटे की ट्यूनिंग कमाल की है. सुप्रिया पाठक का किरदार कम वक्त के लिए रहा है लेकिन वो अपना काम सहजता से निभा जाती हैं. राजपाल यादव इस फिल्म में भले ही एक दो सीन्स के लिए आते हैं, लेकिन चेहरे पर मुस्कान जरूर छोड़ जाते हैं.

क्यों देखें

एक फैमिली एंटरटेनमेंट फिल्म है, जो महिलाओं के पक्ष पर गहरी बात कह जाती है. कार्तिक-कियारा की जोड़ी भूल भुलैया2 के बाद दोबारा नजर आ रही है, तो उनके फैंस को इससे बेहतर ट्रीट मिल सकती है. ओवरऑल फिल्म को एक बार देखना, तो जरूर बनता है.